कत्यूरी शासन काल भाग-2 (ईसा से २५०० वर्ष पूर्व से ७०० सन तक ) कुमाऊँ का इतिहास Katyuri ruled period Part-2 (2500 years before AD to 700 Years)

Leave a Comment / History / By Harsh

कुमाऊँ का इतिहास कत्यूरी शासन काल भाग-2 (ईसा से २५०० वर्ष पूर्व से ७०० सन तक ) #uttarakhand #himanchal Pradesh #bageshwar #13 districts of Uttarakhand #kausani #baijnath #baijanth Dham #Pauri Garhwal #Garhwalकुमाऊँ का इतिहास कत्यूरी शासन काल भाग-2 (ईसा से २५०० वर्ष पूर्व से ७०० सन तक ) #uttarakhand #himanchal Pradesh #bageshwar #13 districts of Uttarakhand #kausani #baijnath #baijanth Dham #Pauri Garhwal #Garhwal

कत्यूरी शासन काल भाग-2 (ईसा से २५०० वर्ष पूर्व से ७०० सन तक )

जोशीमठ से कत्यूर आने की कहानी : कत्यूरी शासन काल

     अंग्रजी लेखकों का अनुमान है कि कत्यूरी राजा आदि में जोशीमठ (ज्योतिर्धाम) में रहते थे। वहाँ से वे कत्यूर में आये। उनके जाड़ों में रहने की जगह ढिकुली थी। वहाँ बाद में चंद राजा भी जाड़ों में रहते थे। पस्चात उन्होंने कोटा  अन्य स्थानों अपने महल बनवाये। 

     ७वीं शताब्दी तक यहाँ बुद्ध-धर्म का प्रचार था, क्यूंकि ह्यूनसांग ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि गोविषाण तथा ब्रह्मपुर (लखनपुर), दोनों में बौद्ध लोग रहते थे, कहीं-कहीं सनातनी भी थे। मंदिर व् मठ साथ-साथ थे। पर आठवीं शताब्दी में श्रीशंकराचार्य के धार्मिक दिग्विजय से यहाँ बौद्ध धर्म का ह्रास हो गया। नेपाल व कुमाऊँ दोनों देशों में शकंराचार्य गये और और सब जगह के मंदिरों से बुद्धमार्गी पुजारियों को निकालकर सनातनी पंडित वहाँ नियुक्त किये। बद्रीनारायण, केदारनाथ व जागेश्वर  पुरजरीयों को भी उन्होंने ही बदला। बौद्धों के बदले दक्षिण के पंडित बिलाये गए। 

     ऐसा अनुमान है की कत्यूरी राजा  शंकराचार्य के आने से पूर्व बौद्ध थे, बाद में वे सनातनी हो गये। कत्यूर व कार्तिकेयपुर में वे जोशीमठ से आये। कुमाऊँ के तमाम सूर्यवंशी ठाकुर व रजवार लोग अपने को इसी कत्यूरी खानदान का कहते हैं।

जोशीमठ से कत्यूर आने की कहानियाँ इस प्रकार है – (१) राजा वासुदेव के कोई गोत्रधारी शिकार खेलने को गये थे। घर में विष्णु भगवान् नृसिंह के रूप में आये। रानी ने खूब भोजनादि से सत्कार किया। फिर वे राजा के पलंग पर लेट गये। राजा लौटकर आये और रनवास में अपने पलँग पर किसी अन्य पुरुष को पड़ा देखकर अप्रसन हुए। उस पर तलवार मारी, तो साथ से दूध निकला। तब रानी से पुछा कि वे कौन हैं? रानी ने कहा कि वे कोई देवता हैं, जो बड़े परहेज से भोजन कर पलँग पर सो गये थे। तब राजा ने नृसिंह देव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और अपने कसूर के लिए दंड या शाप देने को कहा। तब उस देवता ने कहा – “मैं नृसिंह हूँ। तेरे दरबार से प्रसन्न था, तब तेरे यहाँ आया। अब तेरे अपराध का दंड तुझे इस प्रकार मिलेगा कि तू जोशीमठ से कत्यूर को चला जा और वहाँ तेरी राजधानी होगी। याद रख, यह घाव मेरी मंदिर की मूर्ति में भी दिखाई देगा। जब यह मूर्ति टूट जाएगी, तब तेरा वंश भी नष्ट हो जाएगा। ” ऐसा कहकर नृसिंह अंतर्ध्यान हो गये। 

     (२) दूसरी कहानी इस प्रकार है कि स्वामी शंकराचार्य कत्यूरी रानी के पास उस समय आये, जब राजा वासुदेव विष्णु प्रयाग में स्नान करने गये थे। 

     इन कहानियों से यह साफ़ है कि यदि कत्यूरी राजा गढ़वाल से कुमाऊँ को आये, तो कोई धार्मिक कलह उपस्थित हुआ होगा,जिससे राजा वासुदेव व उनके कुटुम्बी जोशीमठ से कार्तिकेयपुर आने को बाध्य हुए।

कार्त्तिकेयपुर के बारे में : कत्यूरी शासन काल

     गढ़वाल से  चलकर कहते हैं कि कत्यूरी राजाओं ने गोमती नदी के किनारे बैजनाथ गांव के पास महादेव के पुत्र स्वामी कार्त्तिकेय के नाम से कार्त्तिकेयपुर बसाया। कत्यूरी प्रान्त से कत्यूरी खानदान चला या कत्यूरी राजाओं ने उस घाटी का नाम कत्यूर रक्खा, इस पर मदभेद है। अस्कोटवाले तो कहते हैं कि अयोध्या  सूर्यवंशी राजा आये। वे कत्यूर में बसे, वे यहाँ से सर्वत्र फैले। इसी से खानदान कत्यूरी कहलाया, पर अठकिन्सन साहब कहते हैं कि यह कत्यूर खानदान वाले काबुल व काश्मीर के नृपति तुरुक्ष खानदान में से थे। ये राजपूत कटूरि या कटौर कहलाते थे। काश्मीर के तीसरे तुरुक्ष खानदान के राजा का नाम भी देवपुत्र वशुदेव था। वशुदेव के पुत्र कनकदेव काबुल में अपने मंत्री कलर द्वारा मारे गये। अठकिन्सन साहब कहते हैं कि काश्मीर के कटूरी राजाओं ने ही कत्यूर घाटी का नाम अपने वंश से चलाया। 

     कत्यूर में कई पुश्त तक इन राजाओं का राज्य रहा। दूर-दूर के राजाओं  राजदूत कत्यूरी राजाओं की राजधानी में रहते थे। यहाँ शायद चित्तौरगढ़ सम्राट के राजदूत रहते हों। ये राजा बड़े धर्मात्मा थे, विना एक धर्म-कार्य किये भोजन नहीं  करते थे। तमाम कुमाऊँ प्रान्त व गढ़वाल इनके बनवाये मंदिरों व नौलों से भरा है। जहाँ कहीं मंदिरों की प्रतिष्ठा करने में यज्ञ किया या कहीं कोई धर्म-कार्य किया या पूजन किया, तो वहाँ पर यज्ञस्तम्भ जमीन में गाड़ देते थे। अब इनको वृखम कहते हैं। 

     यह वृखम तमाम में अब तक दिखाई देते हैं। इनका ज्यादातर वृतांत इनके शिला लेखों से पाया जाता है। ये लेख जागेश्वर, बैजनाथ, गड़सीर के बद्रीनाथ, बागेश्वर, गढ़वाल के बद्रीनाथ तथा पांडुकेश्वर के मंदिरों में पाये गए हैं। इन्ही से इनकी प्रभुता का पता चलता है। विशेषकर इनके समय के ५ तामपत्र व् १ शिला लेख हैं, जिनका वृतान्त यहाँ पर दिया जायगा। 

बागेश्वर का शिला लेख : कत्यूरी शासन काल

     एक शिला-लेख व्यघेश्वर या बागेश्वर शिव के मंदिर का है, जो बागेश्वर में पाया गया है। कुछ लोग इसे व्यघेश्वर कुछ बागेश्वर कहते हैं, पर शिला-लेख में व्यघेश्वर लिखा है। यह स्थान पट्टी तल्ला कत्यूर के सरयू व गोमती के संगम पर है। यह श्रीभूदेव देव का है। इसमें इनके अतिरिक्त सात और राजाओं के नाम हैं, जो दाता के पूर्वज थे –

  १. वसन्तनदेव     २. खरपरदेव      ३. कल्याणराजदेव      ४. त्रिभुवनराजदेव 

     ५. निम्बर्तदेव      ६. ईशतारणदेव      ७. ललितेश्वरदेव      ८. भूदेव देव     

     ये आठों गिरिराज चकचूड़ामणि या हिमांचल के चक्रवर्ती सम्राट कहे जाते थे। गिरिराज की पदवी हिमांचल के राजा होने से प्राप्त होना स्पष्ट है। शिला-लेख संस्कृत में हैं। कुछ टूट गया है। इसका संक्षिप्त भावार्थ यहाँ पर दिया जाता है। 

कुछ शिला-लेख और कुमाऊँ में रहे राजाओं के वंशजों के बारे में हम आपको निचे दिए गये तस्वीर के माध्यम से बताएँगे। 

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      तो यह था कत्यूरियों के शासन काल का उल्लेख। आसा करता हूँ आपको इस ब्लॉग के माध्यम कत्यूरियों के बारे में काफी कुछ जानने मिला होगा। चंद वंश का शासन कब से कब तक था और वे यहाँ कब आये? कैसे आये? और कहाँ से आये? आपको अपने अगले ब्लॉग में बताऊँगा।  तो अभी के लिए बस इतना है जुड़े रहिये मेरे साथ मेरे इस ब्लॉग से। धन्यवाद् ! 

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