गोरखा शासन काल (सन १७९० से १८१५ तक) भाग-१- कुमाऊँ का इतिहास ! Gorkha Ruled Period (From 1790 to 1815) Part-1 – History of Kumaon

गोरखा शासन काल (सन १७९० से १८१५ तक)- कुमाऊँ का इतिहास ! Gorkha Ruled Period (From 1790 to 1815)-History of Kumaonगोरखा शासन काल (सन १७९० से १८१५ तक)- कुमाऊँ का इतिहास ! Gorkha Ruled Period (From 1790 to 1815)-History of Kumaon

गोरखा शासन काल (सन १७९० से १८१५ तक) भाग-१ – कुमाऊँ का इतिहास

     सन ७०० से १७९० तक चंद राजाओं का शासन होने के बाद कैसे गोरखा शासन काल शुरू हुआ हम आपको आज के इस लेख के माध्यम से बताएँगे। गोरखाओं का शासन काल सन १७९० से १८१५ तक चला जीसके बाद अंग्रेजी शासन काल शुरू हुआ। तो दोस्तों अंग्रेजी शासन काल के बारे में हम आपको दुसरे लेख में बताएँगे, आज के इस लेख में हम गोरखा शासन काल के बारे में पढ़ेंगे। चलिए शुरू करते हैं। 

नेपाल का पूर्व इतिहास

     चंद राज्य के पस्चात कुमाऊँ में पच्चीस वर्ष तक गोरखों का राज्य या शासन रहा। गोरखा एक प्रकार के फ़ौजी ढंग के लोग हैं, अतः उनका शासन भी फ़ौजी रहा। दैशिक शासन का अंश  उसमें बहुत कम था।  आपसी झगड़ों से कुमाऊँ राज्य की शासन श्रृंखला छिन्न-भिन्न गई थी। खजाना खाली था।  आपस की फूट से देश की स्थिति अस्तव्यस्त थी। सेना में गड़बड़ थी। तो भी यह ख्याल किसी को न था कि गोरखा लोग फुर्ती से आकर लगभग १००० वर्ष के पुराने राज शासन को एकदम अपने अधीन कर लेंगे। क्योंकि नेपाल राज्य भी उस समय छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था। भाट-गांव, बेनपा, कान्तिपुर अथवा काठमांडू अब प्रान्त छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित थे। 

     इसमें से एक छोटे राज्य के शासक राजा नरभूपालशाह थे। इन्होंने पश्चिम के वैश्य राजाओं पर चढ़ाई की, पर सफलता न मिली। तब इन्होंने अपने पुत्र कुँ. पृथ्वीनारायण को भाटगाँव के राज्य में शिक्षा के लिए इस नियत से भेजा कि उस ओर  का सब रहस्य उसके पुत्र को ज्ञात हो जाये। वहाँ वह राजकुमार सब बातों में दक्ष होकर सन १७४३ ईसवी में पिता की मृत्यु पर गद्दी पर बैठे। सन १७६८ में उन्होंने भारी सेना लेकर नोआकाट, कीर्तिपुर, बेनपा,भाटगांव आदि राज्यों पर अधिकार जमा लिया।  राजा पृथ्वीनारायण सन १७७५ में मर गए। उनके पुत्र राजा सिंहप्रतापशाह ने राज्य पाया। वह भी पूर्व में केवल सुम्मेश्वर तक राज्य जीतकर सुरपुर को सिधारे। उनके बाद राजा रणबहादुरशाह गद्दी पर बैठे। उनकी उम्र कम होने से उनकी माता रानी इन्द्रलक्ष्मी संरक्षक बनी। सन १७७९ में रानी को छोटे राजा के चाचा बहादुरशाह ने मार डाला, और राज्यधिकार अपने हाथों में ले दुसरे मुल्कों को फ़तेह करने के काम को बड़ी सरगर्मी से शुरु किया। उन्होंने आछम, जुमला, डोटी के राजा पृथ्वीपतिशाह को निकालकर वहाँ पर अपना विजय डंका बजाया। 

     नेपाल दरबार को कुमाऊँ राज्य की व्यवस्ता का सब हाल ज्ञात था। फिर चतुर राजनीतिज्ञ हर्षदेव जोशीजी से उनका लिखा-पढ़ी हुई, उन्होंने रहे-सहे सब रहस्य बता दिये। और भी, यदि नेपाल दरबार कुमाऊँ पर चढ़ाई करे, तो उन्होंने सहयोग करने का वचन दिया, और हर तरह सहायता देने को लिखा। 

गोरखों की चढ़ाई

     इधर गोरखा फ़ौज सन १७९० के आरंभ में डोटी से कुमाऊँ के ऊपर धावा करने को चल पड़ी, उधर सेनापति काज़ी जगजीत पांडे की मार्फ़त पं. हर्षदेव जोशीजी के पास नेपाल दरबार का लालमुहर वाला पत्र आया कि वह नेपाली सेना को मदद दें। अस्तु, हर्षदेवजी बरेली से कुमाऊँ में आये। गोरखा सेनापतियों के नाम ये थे :- चौंतरिया बहादुरशाह, काजी जगजीत पांडे, श्रीअमरसिंह थापा, सूरसिंह थापा। एक सेना काली से सोर को गई, दूसरी सेना विनसुंग़ पर कब्ज़ा करने को चली। जब इस चढ़ाई खबर अल्मोड़ा पहुँची, तो तमाम में खलबली वा निराशा फ़ैल गई। राजा महेंद्रचंद ने तमाम लड़नेवाले लोगों को बुलाया,और अपनी कुछ शिक्षित सेना लेकर गंगोली की ओर प्रस्थान किया। उधर श्रीलालसिंह भी उतनी ही सेना लेकर कालीकुमाऊँ को ओर बढ़े। सूबेदार अमरसिंह थापा ने कुमय्यों पर चढ़ाई की, पर राजा महेंद्रचंद की फ़ौज ने उन्हें हरा दिया, और उन्हें कालीकुमाऊँ की ओर मुड़ने को विवश किया, जहाँ कि गोरखों को सफलता प्राप्त हुई। क्योंकि कोटालगढ़ के निकट गौतोड़ा गांव पर उन्होंने कुँ. लालसिंह को छकाया, और उनके २०० आदमियों को मारकर उन्हें देश की ओर भागने को विवश किया। राजा महेंद्रचंद अपने चाचा कुँ. लालसिंह की मदद के लिये जाने को थे कि उनके चाचा के हार की खबर मिली, और वह भी अपनी राजधानी अल्मोड़ा को बचाने की सब आशा छोड़कर कोटा की तरफ भागे, जहाँ रुद्रपुर से उसी समय कुँ. लालसिंह भी पहुँच गये। गोरखों ने इस तरह अपना रास्ता साफ़ देखकर अल्मोड़ा की ओर क़दम बढ़ाया, और हवालबाग़ के पास एक साधारण युद्ध के पस्चात सन १७९० तदनुसार संवत १८४७ चैत्र कृष्णपक्ष प्रतिपदा के दिन अल्मोड़ा पर अपना आधिपत्य जमाया। पं. हर्षदेव जोशीजी काज़ी जगजीत पांडे के साथ थे। खास कुमाउँनी सेना के वह अफ़सर बने थे। बाद को एक बार राजा महेंद्रचंद व कुँ. लालसिंह कालीकुमाऊँ की सिपटी व गंगोल पट्टी के बीच बिरगुल गांव में व दूसरी बार बड़ाखेड़ा की घाटी से गोरखों से अपना देश स्वतंत्र बनाने के अभीप्राय से लड़े, पर दोनों बार हार गये, और भागकर किलपुरी में रहने लगे। 

गोरखों का गढ़वाल पर विजय

     सन १८०३ में गोरखों ने गढ़वाल को सर किया।  गढ़वालियों ने भी लंगूरगढ़ की चढ़ाई से आज तक बड़ी बहादुरी से गोरखों का सामना किया था। वे बराबर लड़ते रहे और जब अवसर पाया, आस-पास के मुल्क को लूटते रहे। इस वर्ष गोरखा नेता- सुब्बा अमरसिंह थापा, हस्तिदल चौंतरीया, बमशाह चौतरिया तथा रणजोर थापा नेपाल से आये। वे बड़ी विराट व् सुलझी हुई सेना लेकर गढ़वाल पर चढ़े। उधर से गढ़वाली राजा व उनके दोनों भाई। यमुना के उदगम स्थान में रहनेवाले पलियागाड़ के ज्योतिषियों ने कह दिया था कि राजा की हार होगी और वे देहरादून को जायेंगे। ऐसा ही हुआ। देहरादून में राजा प्रधुम्नशाह ने लंढौरा के गुजर राजा रामदयालसिंह की सहायता से १२००० फ़ौज एकत्र की। अपना राज्य लौटाना चाहा, पर खुड़बुड़े के पास गोरखों से लड़ाई हुई। राजा प्रधुम्नशाह मारे गये। कुँ. प्रीतमशाह कैद होकर नेपाल भेजे गये। कुँ. पराक्रमशाह काँगड़े के राजा संसारचंद के यहाँ भाग गये। यह घटना १८०४ की है। श्रीअमरसिंह तथा उनके पुत्र श्रीरणजोर थापा गढ़वाल व कुमाऊँ दोनों के शासक रहे। 

     तो दोस्तों हमेशा की तरह हम गोरखा शासन काल के बारे में आपको दो भाग में बतायेंगे। तो ये था भाग-१, अगला भाग हम जल्द आपके बीच लेके आयेंगे जिसमे हम आपको बतायेंगे “गोरखों की अंग्रेजों के साथ युद्ध, काली कुमाऊँ की ओर आदि” । भाग-१ को पढ़ कर आपको कहीं कोई बदलाव लगता है तो कमेंट सेक्शन में लिखें और हमें बताएँ। तो अभी के लिए अलविदा जुड़े रहिये मेरे साथ मेरे इस ब्लॉग से फिर मिलेंगे। धन्यवाद !

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